संसद का आगामी मानसून सत्र 18 जुलाई से शुरू हो रहा हैं. लेकिन उससे पहले ही संसद और इसके कुछ नियम जो आगामी सत्र के लिए बनाये गए हैं, उसको ले कर विवाद शुरू हो गया हैं. विवाद हैं कुछ शब्दों को लेकर जिसे असंसदीय ठहरा दिया गया हैं, जिसको लेकर विपक्ष सरकार पर हमलावर हैं. ये विवाद अभी थमा भी नहीं था. तब तक संसद के इस आगामी सत्र के लिए बनाए गए एक और नियम ने तुल पकड़ लिया हैं.
नया नियम ये हैं कि संसद सदस्य संसद परिसर का उपयोग किसी भी तरह का धरना, हड़ताल, भूख हड़ताल और धार्मिक आयोजन के लिए नहीं कर सकेंगे. इस नए नियम के लिए सभी माननीय सदस्यों का सहयोग जरुरी हैं. इस बात हमलावर होते हुए कांग्रेस नेता और संसद सदस्य जयराम रमेश ने संसद की नियम चिट्ठी को ट्वीट करते हुए लिखा की विश्वगुरु का नया काम – D(h)arna मना है. इन नए नियमो ने आगामी मानसून सत्र को हंगामा पूर्ण बनाने की नीव रख दी हैं या यु कहे की ये आगामी सत्र कितना हंगामेदार रहने वाला हैं इसकी स्क्रिप्ट इन नियमो के तहत लिखी जा चुकी हैं.
संसद का एक नियम तो समझ आता हैं की जो भाषा संसद और लोकतंत्र की गरिमा को ठेस पहुचाये वो संसद के रिकॉर्ड में ना जाए, जिससे लोकतंत्र और सदन दोनों की गरिमा अक्षुण रहे. लेकिन सदन में सभी तरह के हड़ताल और विरोध व्यक्त करने की प्रथा पर रोक लगाना क्या लोकतंत्र में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि द्वारा विरोध व्यक्त करने के अधिकार पर अंकुश नहीं लगाता ?
आखिर जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि संसद में सरकार के नियमो के खिलाफ अपना रोष व्यक्त नहीं करेंगे तो कहा करेंगे ? अब कुछ दर्शक सोच सकते हैं या ये भी कह सकते हैं की चुने हुए प्रतिनधि सदन के अन्दर अपना रोष व्यक्त करे सदन परिसर में रोष व्यक्त करने से क्या फायदा ? लेकिन थोडा ठहरिये और फिर सोचिये की जनता के चुने हुए प्रतिनधि सदन के भीतर अपना रोष व्यक्त करने में कैसे असमर्थ हो जाते हैं. इसको आप कुछ इस तरह समझिये सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चले इसकी जिम्मेवारी सरकार,सदन के स्पीकर और अंत में विपक्ष पर निर्भर करती हैं. सरकार की तरफ से ये सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी होती है,संसदीय कार्य मंत्री की और संसदीय कार्य मंत्री ही एक सेतु की तरह कार्य करते हैं सरकार और सदन के बीच. अब एक बात समझिये प्रशनकाल हुआ फिर शून्यकाल शुरू हुआ उसके बाद सदन में किसी ख़ास विषय जो देशहित के लिए प्रस्तावित हो उस पर चर्चा होनी शुरू हुई लेकिन विपक्ष ने चर्चा के किसी दुसरे नियम के तहत किसी दुसरे देशहित के विषय पर चर्चा की मांग कर दी तो ये सब निर्भर करता हैं. सदन के स्पीकर और सभापति महोदय के विवेकशीलता पर की वो विपक्ष द्वारा जिस विषय पर चर्चा की मांग की जा रही हैं. उस पर सदन विपक्ष को चर्चा की मंजूरी देता हैं की नहीं. इस बाबत स्पीकर संसदीय कार्य मंत्री से चर्चा और परामर्श करते हैं. अब आप सोचिये की संसदीय कार्य मंत्री तो सरकार से ही आते हैं तो जिस विषय पर पर चर्चा करना सरकार के लिए आरामदेह होगा उस पर सरकार चर्चा करने के लिए तैयार होगी और जिस पर चर्चा करने में सरकार आरामदेह महसूस नहीं करेगी, उस पर चर्चा करने से सरकार बचेगी और स्पीकर को ये कह दिया जायेगा की सरकार द्वारा प्रस्तावित विषय देशहित के लिए अधिक महत्व का हैं. इसके पश्चात सदन के स्पीकर या सभापति महोदय सरकार की अनुशंसा के बाद ये तय करते हैं की सरकार की बात में कितना स्थायीत्व हैं उसके बाद स्पीकर या सभापति महोदय विपक्ष को उस विषय पर चर्चा करने या नहीं करने का आदेश देते हैं.
आपने ऐसा कई बार सुना भी होगा सदन की कार्यवाही के समय की माननीय सदस्य कृप्या विषय पर ही बोले. जब विपक्ष द्वारा प्रस्तावित विषय पर चर्चा नहीं होती तो विपक्ष सदन से वाकआउट कर जाता हैं. जब विपक्ष सदन से वाकआउट करता हैं तो जैसा की आपने पिछले सत्र में देखा होगा कि, विपक्ष के सभी बड़े नेता सदन में मैजूद गाँधी जी प्रतिमा के नीचे सरकार की नीतिया जो उनकी दूरदर्शिता के हिसाब से देश की जनता के हित के लिए नहीं हैं. उसके खिलाफ अपना रोष व्यक्त करते थे. संसद जो लोकतंत्र की सर्वोच्च विधायिका हैं, अब उसका गलियारा विपक्ष द्वारा उठाये जा रहे विरोध के स्वर से संभवत अब दुर हो जायेगा. अब शायद ही कोई विपक्ष का नेता उस कॉमन और स्वतंत्र स्पेस पर खड़ा हो कर सरकार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर पायेगा. शायद अब विपक्षी नेता बड़ी दुविधा में होंगे की जब तक सदन में हो सरकार और सदन द्वारा प्रस्तावित विषय पर चर्चा करिए, हंगामा किया तो संसद भवन के बाहर मार्शल छोड़ आयेंगे पहले तो भवन के बाहर छोड़ कर आते थे, अब हंगामा किया तो पता चला संसद परिसर के ही बाहर न छोड़ आये. अब सदन में बैठना हैं प्रस्तावित विषय पर चर्चा करिए हंगामा करने का मन हैं तो घर से ही न आये और आये भी तो हाजिरी बना कर चले जाइए. अब संसद में स्थापित गाँधी जी की प्रतिमा भी राहत महसूस करेगी की चलो अब कुछ तो नया होगा. अब सरकार के नीतियों के खिलाफ लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर के परिसर में विरोध के स्वर नहीं सुनाई देंगे. लोकतंत्र में धाराशाही होते विपक्ष की आवाज से एक बात तो हैं राष्ट्रपिता की प्रतिमा के आस पास अब बहुत शांति होगी. क्या राष्ट्रपिता को लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में शांत होती विरोध की आवाज से उत्पन्न शांति से उनके दिवंगत आत्मा को शांति मिलेगी ? अगर हम एक नज़र सदन में गिरते चर्चा के स्तर और उनकी संख्या पर डाले तो ये प्रतिबन्ध और चिंता उत्पन्न करने वाला हैं.
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अगर आजादी 1952 से अब तक बात करे तो स्थगन प्रस्ताव (अद्जौर्नेमेंट मोशन) में निरंतर गिरावट दर्ज की गयी हैं. स्थगन प्रस्ताव मुख्य तौर पर विपक्ष द्वारा लाया जाता हैं जब विपक्ष किसी दुसरे देशहित से जुड़े मुद्दे पर चर्चा करना की इक्छा व्यक्त करता हैं. जिस विषय के साथ विपक्ष स्थगन प्रस्ताव सदन में लेकर आता हैं उस विषय का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार के कार्यकरण से संबंध होना चाहिये, तथा उसमें स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख होना चाहिये कि भारत सरकार संविधान और कानून के किस उपबंध के अनुरूप अपने कर्त्तव्यों का पालन करने में सफल नहीं रही है. सदन में स्थगन प्रस्ताव के तहत चर्चा करने के लिये किसी विषय को स्वीकृत करने अथवा अस्वीकृत करने की पूरी शक्ति सदन के पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) को प्राप्त होती है और किसी मामले को स्वीकृत करने अथवा अस्वीकृत करने का कारण बताना पीठासीन अधिकारी के लिये आवश्यक नहीं है. सत्रावधि के दौरान स्थगन प्रस्ताव की सूचना उस दिन 10.00 बजे से पूर्व दी जानी आवश्यक है, जिस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने का विचार है. इस अवधि के बाद प्राप्त सूचना को अगली बैठक के लिये दी गई सूचना के रूप में माना जाएगा. नियमों के मुताबिक जब प्रस्ताव पर चर्चा हो रही होती है, तो अध्यक्ष के पास सदन को स्थगित करने की शक्ति नहीं होती है. एक बार स्थगन प्रस्ताव पर बहस शुरू होने के बाद सदन के लिये बिना किसी रूकावट के उस प्रस्ताव के निष्कर्ष तक पहुँचना आवश्यक होता है. इस प्रस्ताव को विपक्ष द्वारा सदन में कई बार लेकर आया गया लेकिन इस पर चर्चा निरंतर घटती रही और हैरत की बात तो ये हैं की 17वीं लोकसभा में अभी तक एक भी स्थगन प्रस्ताव को मंजूरी नहीं मिली. आखिरी स्थगन प्रस्ताव शिरोमणि अकाली दल द्वारा लाया गया था विवादित कृषि कानून पर चर्चा करने के लिए.
अगर वही संसद(लोकसभा) में बजट पर चर्चा का इतिहास देखे तो ये भी आजादी का बाद निरंतर कम हुई हैं. 1952 में जहा बजट पर लगभग 100 घंटे तक चर्चा हुई वही विश्वगुरु और आत्मनिर्भर बनने के मुहाने पर खड़े भारत में बजट पर चर्चा 2022 में 70 घंटे से भी कम रही.
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भारतीय संसद प्रणाली में कई तरह की समितियों का प्रावधान हैं. जिस बिल को सरकार द्वारा सदन के पटल पर रखा जाता हैं. उस पेश बिल पर अगर विपक्ष को लगता हैं की इसमें किसी की संवैधानिक कमिया हैं तो ये सरकार की नैतिक जिम्मेवारी होती हैं कि विपक्ष की शंकाओ को दुर करने और व्यापक विशेषज्ञ चर्चा और सुझाव के लिए उस बिल को संबंधित समिति के पास भेज दिया जाए. लेकिन सरकार द्वारा पेश बिलो और विधेयको को समिति के पास भेजे जाने की परंपरा में भी गिरावट आयी हैं. अगर हम 14वी लोकसभा की बात करे तो लगभग 60 प्रतिशत विधयेक और बिलों को संसदीय समिति के पास भेजा गया वही 2022 आते-आते ये आकड़ा 20 प्रतिशत के आस-पास ही रह गया. अलग अलग संसदीय समिति में विपक्ष के सांसदों की संख्या भी सदस्यों के तौर पर ठीक-ठाक होती हैं. कई संसदीय समिति के तो अध्यक्ष भी विपक्ष के नेता होते हैं जो सरकार के मंत्री या संबंधित विभाग के अधिकारी को बुला कर प्रशन कर सकते हैं
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अगर बात करे सरकार द्वारा पेश बिलों पर चर्चा के घंटो कि तो उसमे भी निरंतर गिरावट दर्ज की गयी हैं. 16वी लोकसभा में 14वी और 15वी लोकसभा के तुलना में अधिक चर्चा हुई लेकिन उस चर्चा को व्यापक नहीं कहा जा सकता हैं. 16वी लोकसभा में 133 विधेयक सरकार द्वारा पेश किये गए लेकिन इसमें कई विधेयक और बिल ऐसे थे तो जो संख्या बल के आधार पर 30 मिनट से कम समय में ही सदन द्वारा पारित कर दिए गए. प्रशनकाल में भी सरकार द्वारा जवाब देने की परंपरा में कमी दर्ज की गयी हैं. इस गंभीर समस्या पर देश के मुख्य न्यायधिष भी अपनी चिंता व्यक्त कर चुके हैं. एनवी रमन्ना ने कहा था की विधेयको पर व्यापक चर्चा न होना लोकतान्त्रिक परंपरा के लिए सही नहीं हैं और कम चर्चा की वजह से पता ही नहीं चल पाता की विधेयक लाने का मुख्य उद्देश्य क्या था ? बिना चर्चा के पास विधयेको की परिणिति से क्या उत्पन्न होता हैं अभी हाल ही में देश उसका साक्षी भी बन चूका है. किसान आन्दोलन के रूप में, जो लगभग 700 किसानो को लील गया और फिर सरकार को उस बिल को वापस लेना ही पड़ा. लोकतान्त्रिक और संसदीय परंपरा और परिसर से एक व्यवस्थित तरीके से विपक्ष की आवाज को ख्त्म करना सही लोकतंत्र की परिभाषा नहीं हैं. क्यूंकि इसी संसद से देश की राजनीति के अजातशत्रु और दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कह चुके हैं की देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष की भी बराबर की भूमिका हैं. ये सरकार को सुनिश्चित करना हैं की क्या वो संख्याबल के आधार पर संसद को एक रबर स्टाम्प बना देना चाहती हैं ? क्या वो विपक्ष की आवाज को सड़क से सदन तक शांत कर देना चाहती हैं ? क्या अब सत्ता तय करेगा की उसके सामने बैठने वाला विपक्ष कौन, कैसा हो और वो कितना बोले ? लोकतंत्र में विधायिका मतलब सिर्फ सत्ता पक्ष होगा ? विधेयको पर कम चर्चा का ही नतीजा हैं की विधायिका और न्यायपालिका में तकरार बढ़ती जा रही हैं. चर्चा कम होती हैं बिल का मुख्य उद्देश्य समझ नहीं आता विपक्ष उसको सर्वोच्च अदालत में चुनौती देता हैं. जिस कारण विधायिका और न्यायपालिका आमने-सामने आ जाती हैं. संसद और संसद का परिसर हमेशा जिवंत लोकतंत्र का एक परिचायक होता हैं. लेकिन अगर इसी तरह नए नियमो के तहत विपक्ष की आवाज को शांत किया जाता रहा तो राष्ट्रमंत्र और लोकतंत्र की परिकल्पना बिना विपक्ष अधुरा और मुर्दहिया समान प्रतीत होगी. सत्ता हो या विपक्ष गाँधी सबको पसंद हैं और वो एक ऐसी संसदीय व्यस्था चाहते थे की संसद में ऐसे सदस्य जाए जिनका समाज से गहरा जुडाव हो किसी को अपनी बात रखने के लिए झुण्ड में न शामिल होना पड़े.
written by : RAKESH MOHAN SINGH
edited by: Md Shahzeb Khan